हमारा पर्यावरण – पर्यावरण और पर्यावरणीय अध्ययन का परिचय

हमारा पर्यावरण – पर्यावरण और पर्यावरणीय अध्ययन का परिचय: पृथ्वी एकमात्र ऐसा ग्रह है, जहां जीवन का होना ज्ञात है। पृथ्वी की विशालता के बावजूद, जीवन उसके बहुत ही संकीर्ण क्षेत्र में पाया जाता है जिसे जीवमंडल कहते हैं। सूर्य ऊर्जा का एकमात्र स्रोत है

जो विविध जीवन प्रकारों के रूप ने सतत्‌ पारस्पर क्रिया को संभव बनाता है| इस इकाई में, पाठ्यक्रम की पहली इकाई होने के कारण, शब्द ‘पर्यावरण’ के समग्र अर्थ को बताया गया है। व्यापक शब्दों में, पर्यावरण में जीवों से प्रभावित वह प्रत्येक चीज जिसमें भौतिक ओर सजीव दोनों कारक सम्मिलित है।

भौतिक और सजीव कारकों के बीच क्रिया और परस्पर क्रिया से संबंधों का एक तंत्र बनता है जिसे पारिस्थितिक तंत्र कहते हैं। इस इकाई में ये भी बताया गया है कि हम सजीवों के रूप में किस प्रकार पारिस्थितिक तंत्र के अन्य सजीव और निर्जीव घटकों के साथ परस्पर क्रिया करते हैं।

सदियों से मनुष्यों ने पृथ्वी और पर्यावरण (हमारा पर्यावरण) को वस्तुत: असीमित संसाधन माना है लेकिन सूक्ष्म और क्रमिक परिवर्तनों ने हमारे पर्यावरण को अनेक भिन्‍न तरीकों से परिवर्तित किया है। परिवर्तनशील परिदृश्य में पिछले वर्षों में विशेष रूप से औद्योगिक क्रांति के बाद से मानव जनसंख्या में वृद्धि का विशेष उल्लेख किया गया है।

हम आशा करते हैं कि इस इकाई से आपको पर्यावरण (हमारा पर्यावरण) और उसके विभिन्‍न घटकों को बेहतर तरीके से समझने में सहायता मिलेगी। यह इकाई आपको अपने पर्यावरण के प्रबंधन और इसे भावी पीढ़ियों के लिए स्वस्थ रखने के लिए अपनी बुद्धि और कौशल का उपयोग करने में सक्षम बनाएगी।

हमारा पर्यावरण

हमारा पर्यावरण

पर्यावरण की अवधारणा

प्रत्येक जीवित जीव का एक विशिष्ट परिवेश अथवा माध्यम होता है जिसके साथ वह निरंतर परस्पर क्रिया करता है, अपना भोजन प्राप्त करता है और जिसके प्रति वह पूर्णतः अनुकूलित होता है। यह परिवेश ‘प्राकृतिक पर्यावरण’ है। शब्द प्राकृतिक पर्यावरण” से हमारे मन में भूदृश्य जैसे मृदा, जल, पर्वत अथवा मरूस्थल के व्यापक आयाम आते हैं जिन्हें अधिक यथार्थरूप से भौतिक अथवा अजैविक प्रभावों जैसे आर्द्रता, तापमान, मृदा के गठन और वायु की गुणवत्ता में परिवर्तनों के रूप में वर्णित किया जा सकता है।

इसमें जीवविज्ञानी अथवा जैविक प्रभाव भी सूक्ष्मजीवों और जंतुओं के रूप में सम्मिलित होते हैं| अत: पर्यावरण को किसी जीव के परिवेश को सजीव और निर्जीव घटकों, प्रभावों और घटनाओं के कुल योग के रूप में परिभाषित किया जाता है।

हम सबसे पहले आरंभ करते हैं कि पर्यावरण क्‍या है? शब्द एन्वायरमेंट (हमारा पर्यावरण) फ्रांसीसी शब्द ‘एन्वायरॉन’ से व्युत्पन्न है जिसका अर्थ है घेरे हुए अथवा इर्दगिर्द जबकि ‘मेन्ट’ का अर्थ है क्रिया यानी पर्यावरण (एनवायरमेन्ट) जीव और प्रकृति के बीच क्रिया है। मनुष्यों के लिए, अनेक प्रकार के पर्यावरण होते हैं जैसे घर का पर्यावरण, व्यावसायिक पर्यावरण, राजनैतिक पर्यावरण, इत्यादि | लेकिन हम सिर्फ प्राकृतिक पर्यावरण की चर्चा करेंगे : वायु, जल, थल, पादप, जंतु तथा अन्य जीव। प्रकृति में कोई भी जीव अपने पर्यावरण से परस्परक्रिया करके उसे प्रभावित करता है और उसके द्वारा प्रभावित होता है।

अत: पर्यावरण वायु, जल और थल का कूल योग है। किसी जीव के जीवन पर पर्यावरण के प्रभाव का सबसे प्रमुख गुण पर्यावरणीय तत्वों की परस्पर क्रिया है। ये अमजैविक और जैविक कारक गतिक प्रकृति के होते हैं और जीवन में प्रति क्षण एक दूसरे से परस्परक्रिया करते रहते हैं। कोई भी जीव अकेले अन्य जीवों से परस्पर क्रिया किए बगैर नहीं जी सकता है,

अत: प्रत्येक जीव के पास अन्य जीव उसके हमारा पर्यावरण के भाग के रूप में होता है। आप जानते होंगे

कि प्रत्येक जंतु प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से पादपों मूलरूप से हरे पादपों पर निर्भर होता है जो अपना भोजन स्वयं बनाते हैं| पादप भी कूछ बातों जैसे पुष्पों के परागण और फलों तथा बीजों के प्रकीर्णन के लिए जंतुओं पर निर्भर करते हैं।

आइए अब हम पर्यावरण की अवधारणा को एक उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं । क्या आप तालाब में एक कार्प मछली के पर्यावरण की पहचान कर सकते है? उसके पर्यावरण में अजैविक घटक जैसे प्रकाश, तापमान और जल हैं जिसमें पोषक, ऑक्सीजन, अन्य गैसें तथा कार्बनिक तत्व घुले रहते हैं। जैविक हमारा पर्यावरण में सूक्ष्मदर्शीय जीव जिन्हें प्लतक कहते हैं और जलीय ‘पादप तथा जंतु एवं अपघटक सम्मिलित हैं। पादप विभिन्‍न प्रकार के जैसे प्लावी, ‘निमग्न तथा आंशिक रूप से निमम्न पादप और तालाब के किनारे उगने वाले वृक्ष सम्मिलित हैं| जंतुओं में कीट, कृमि, मृदु कवची जीव, टैडपोल, मेंढक, पक्षी और विभिन्‍न प्रकार की मछलियां होती हैं। अपघटक मृतपोषी जैसे जीवाणु और कवक हैं।

अभी तक आप ये समझ गए होंगे कि पर्यावरण स्थैतिक नहीं होता है| जैविक और अजैविक कारक प्रवाह में और निरंतर परिवर्तनशील रहते हैं| जीव पर्यावरण में हुए परिवर्तनों को एक सीमा तक ही सहन कर पाते हैं जो उनका ‘सहनशीलता विस्तार कहलाता है।

पर्यावरण के घटक और प्रकार

पर्यावरण की अवधारणा के चर्चा के पश्चात इस भाग में हम पर्यावरण के घटक, प्रकार तथा महत्व की चर्चा करेंगे।

पर्यावरण के घटक

व्यापक रूप से हमारा पर्यावरण में अजैविक (निर्जीव]) और जैविक (सजीव) घटक होते हैं। पर्यावरण के जैविक और अजैविक घटकों के कुछ उदाहरण सारणी 4. में दिए गए हैं भौतिक घटक जैविक घटकों की उत्तरजीविता के लिए स्थितियां स्थापित करते हैं, जो बदले में पर्यावरण के रखरखाव का ध्यान रखते हैं। पर्यावरण के घटकों के बीच संबंध ऊर्जा के प्रवाह और पदार्थों के चक्रण के पथ हैं। उदाहरण के लिए, हरे पादप अनिवार्य संसाधनों को भौतिक जगत्‌ से प्राप्त करते हैं – जल और खनिज मृदा से, कार्बन डाइऑक्साइड वायुमंडल से और प्रकाश ऊर्जा सूर्य से तथा अपना भोजन बनाते हैं।

जंतु पादपों तथा अन्य जंतुओं पर अपने भोजन के लिए थल और सागरों से भोजन प्राप्त करते हैं और भूपर्पट से खनिज और ईंधन प्राप्त करते हैं। हम इनके बारे में और अधिक इस पाठयक्रम में बाद में पढ़ेंगे।

भौतिक घटक जैविक घटकों की उत्तरजीविता के लिए स्थितियां स्थापित करते हैं, जो बदले में पर्यावरण के रखरखाव का ध्यान रखते हैं। पर्यावरण के घटकों के बीच संबंध ऊर्जा के प्रवाह और पदार्थों के चक्रण के पथ हैं।

उदाहरण के लिए, हरे पादप अनिवार्य संसाधनों को भौतिक जगत्‌ से प्राप्त करते हैं – जल और खनिज मृदा से, कार्बन डाइऑक्साइड वायुमंडल से और प्रकाश ऊर्जा सूर्य से तथा अपना भोजन बनाते हैं। जंतु पादपों तथा अन्य जंतुओं पर अपने भोजन के लिए थल और सागरों से भोजन प्राप्त करते हैं और भूपर्पट से खनिज और ईंधन प्राप्त करते हैं। हम इनके बारे में अधिक इस पाठयक्रम में बाद में पढ़ेंगे।

जीवन के लिए पर्यावरण का महत्व

जीव चाहे किसी भी प्रकार के पर्यावरण में रहते हों, उन सभी को अपनी उत्तरजीविता के लिए जीवन निर्वहन तत्वों की आवश्यकता होती है। इनमें वायु जिससे हम सांस लेते हैं, भोजन और जल जिन्हें हम ग्रहण करते हैं और आश्रय, चाहे प्राकृतिक (गुफाएं और वृक्षों में बने घर) अथवा कृत्रिम आवास (जैसे मकान) सम्मिलित हैं। पर्यावरण एकमात्र ऐसा स्रोत्र है जो इन जीवन समर्थन / निवर्हन करने वाले तत्वों को प्रदान करता है।

हम भूमि का उपयोग फसलें उगाने के लिए करते हैं। मृदा पादपों की वृद्धि के लिए आवश्यक पोषक प्रदान करती है। भूमि प्रकार किसी क्षेत्र में पाए जाने वाले मृदा प्रकारों का निर्धारण करता है और स्वयं मृदा एक स्थान से दूसरे पर भिन्‍न होती है। कुछ मृदाएं पोषकों से समृद्ध होती हैं और अन्य में उनकी कमी होती है। जिन मृदाओं में पोषकों की कमी होती है, उनमें ऊर्वरकों को मिलाने की आवश्यकता होती है। जलवायु तथा अल्पकालिक मौसम परिवर्तनों की पहचान मुख्य रूप से पवन, तापमान, दाब और वर्षा से होती है और इनका निर्धारण वायुमंडल के गुणों से होता है।

वायुमंडल की वायु सजीवों को ऑक्सीजन प्रदान करती है, जिसके बगैर अधिकांश जीवों का जीवन खतरे में पड़ जाएगा।

मानव – पर्यावरण संबंध

जैसा कि हम पिछले अनुभाग से जानते हैं कि सभी जीवित जीव अपने निर्वहन और जीवन के लिए अपने तात्कालिक परिवेश पर निर्भर करते हैं। यदि हम मानव सभ्यता के इतिहास को देखें तो दो भिन्‍न स्थितियां दिखाई देती हैं। पहली स्थिति ये है कि मनुष्य ने विद्यमान पर्यावरणीय स्थितियों के साथ सामंजस्य ,/ समायोजन अथवा अनुकूलन कर लिया। जो सामंजस्य या अनुकूल नहीं कर पाए वे नष्ट हो गए। इसी प्रकार की स्थितियां पादपों और जंतुओं में भी देखी जा सकती हैं।

जैसे-जैसे मानव सभ्यता का विकास हुआ और आमजन ने प्रकृति को वश में करने के लिए ज्ञान, कौशल और प्रोद्योगिकी विकसित कर लिए। ऐसा पुर्नजागरण और औद्योगिक क्रांति के बाद तेजी से हुआ था। इसने जीवनस्तर को बेहतर बना दिया और मानव जीवन को अधिक सुविधाजनक बना दिया। यद्यपि, इससे पर्यावरण की अपूर्णनीय क्षति हुई और मानव समाज के साथ-साथ पृथ्वी ग्रह की उत्तरजीविता के लिए भी खतरा हो गया। इसलिए, ये समझा गया कि विकास और प्रकृति के संरक्षण के बीच एक संतुलन होना चाहिए।

इस अभिगम को श्रेष्ठ तरीके से ‘सतत्‌ विकास’ के रूप में व्यक्त किया जाता है जिसके विषय में हम विस्तार से अगले अनुभाग में चर्चा करेंगे। लेकिन अभी, हम मानव-पर्यावरण संबंध के विभिन्‍न अभिगमों यानी निश्चयवाद और पर्यावरणवाद (शाशाणा]शआं9जा) की चर्चा करते हैं।

निश्चयवाद

यह संकल्पना जर्मनी के भूगोलविद्‌ फ्रेडरिक रैजेल द्वारा विकसित की गई थी, जिसे बाद में एल्सवर्थ हंटिंगटन द्वारा विस्तारित किया गया था। यह अभिगम ‘प्रकृति मनुष्य को नियंत्रित करती है” अथवा ‘पृथ्वी ने मनुष्य को बनाया है’ की संकल्पना पर आधारित है। इसे पर्यावरणीय निर्धारणवाद भी कहते हैं। इस अभिगम के अनुसार मनुष्य काफी हद तक प्रकृति से प्रभावित होता है। वास्तव में, निश्चयवाद बताता है कि मनुष्य प्राकृतिक पर्यावरण के अधीन है क्योंकि मनुष्य जीवन के सभी आयाम जैसे शारीरिक (स्वास्थ्य और कल्याण), सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, नैतिक और सौंदर्यबोधी भौतिक पर्यावरण पर न सिर्फ निर्भर करते हैं बल्कि प्रभावी रूप से इसके द्वारा नियंत्रित होते हैं।

संभावनावाद

यह शब्द फ्रांसीसी इतिहासकार, ल्यूसियन फेवरे द्वारा दिया गया था। मानव-पर्यावरण (हमारा पर्यावरण) संबंधों के अध्ययन में संभावनावाद का अभिगम पर्यावरणीय निश्चयवाद की आलोचना की एक प्रशाखा है। ऐसे मानव पर्यावरण संबंध का विकास विज्ञान और प्रौद्योगिकी की उन्नति से प्रभावित है। संभावनावाद बताता है कि भौतिक पर्यावरण निष्क्रिय होता है और मनुष्य सक्रिय कर्मक है जो पर्यावरणीय संभावनाओं के व्यापक विस्तारों के बीच चयन करने के लिए स्वतंत्र है। इसके अनुसार, मानव कार्याकलाप का पैटर्न प्राकृतिक ढ़ांचे में प्रचालन कर रहे मनुष्य की पहल और गतिशीलता का परिणाम है।

यद्यपि, संभावनावादियों द्वारा इस पर सहमति हो गई थी कि मनुष्य में प्रकृति को पूर्णतः वश में कर लेने की क्षमता नहीं है और न ही वह सदैव इस पर विजय पा सकता है। इसके फलस्वरूप, कुछ भूगोलविदों ने ‘प्रकृति के साथ सहयोग’ अथवा मनुष्य और पर्यावरण के बीच परस्पर क्रिया’ का भरोसा दिलाया। पर्यावरणवाद अथवा पारिस्थितिकीय अभिगम यह अभिगम पारिस्थितिकी के मौलिक सिद्धांत पर आधारित है, जो एक तरफ

जीव और उसके भौतिक पर्यावरण के बीच और दूसरी तरफ पारिस्थितिक तंत्र में जीवों के मध्य परस्पर क्रियाओं का अध्ययन है। इस अभिगम में मनुष्य को प्रकृति या पर्यावरण के अभिन्‍न भाग के रूप में वर्णित किया जाता है। मनुष्य के सबसे कुशल और बुद्धिमान होने के कारण उसकी प्राकृतिक पर्यावरण को उतना उत्पादक और स्वस्थ बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है जितना उसे होना चाहिए।

यह अभिगम प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण और सीमित उपयोग पर बल देता है और पारिस्थितिकी के कुछ मौलिक सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए उचित पर्यावरणीय प्रबंधन कार्यक्रमों, नीतियों तथा कार्यनीतियों को महत्त्व देता है जिससे पहले से ही क्षीण हो रहे प्राकृतिक संसाधनों की पुर्नपूर्ति हो जाए और प्रकृति का स्वास्थ्य और उत्पादकता बनी रहे। पारिस्थितिकीय अभिगम सबसे अच्छी तरीके से सतत्‌ विकास विकास की अवधारणा में परिलक्षित होता है, जिसके विषय में हम आगामी अनुभाग में चर्चा करेंगे।

संपोषणीयता और सतत्‌ विकास की संकल्पना

सतत्‌ विकास की संकल्पना को ‘आवर कॉमन फ्यूचर” (हमारा समान भविष्य) नामक शीर्षक की रिपोर्ट में औपचारिक रूप से परिभाषित किया गया था यह रिपोर्ट वर्ल्ड कमीशन ऑन एन्वायरमेन्ट एंड डवलपमेंट” पर्यावरण एवं विकास पर विश्व आयोग) द्वारा गठित दल के विचार-विमर्श का परिणाम थी। इसकी अध्यक्षता तत्कालीन नोवेजिअन प्रधानमंत्री ग्रो हार्लेम ब्रुन्टलैन्ड द्वारा ली गई थी।

ब्रुन्टलैन्ड आयोग ने सतत विकास को ऐसे विकास के रूप में परिभाषित किया था “जो वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकता को भावी पीढ़ियों द्वारा अपनी निजी आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमता में कोई समझौता किए बगैर पूरा करता है” | सतत विकास की यह परिभाषा से अत्यधिक बहस छिड़ गई। वैज्ञानिकों का मत था कि शब्द आवश्यकता’ और ‘विकास’ को रिपोर्ट में उचित रूप से परिभाषित नहीं किया गया है।

आवश्यकता को सर्वभौमिक रूप से सामान्यीकृत नहीं किया जा सकता है। यह एक स्थान से दूसरे और एक व्यक्ति से दूसरे की भिन्‍न होती है। इसी प्रकार विकास को भी उचित तरीके से परिभाषित नहीं किया गया है। रिपोर्ट में विकास को किसी ऐसी चीज के रूप में समझाया गया है जो आमजन अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए करते हैं। इसलिए, यह विविध व्याख्याओं के अधीन हो गया है। एक अधिक यथार्थ परिभाषा जिसमें स्पष्ट रूप से लक्ष्यों को बताया जाए, अभी बाकी है।

एक पारिस्थितिकीय पर्यावरणविद्‌ हर्मन डेली ने सतत विकास को एक “विरोधाभास’ के रूप में माना था। क्या आप जानते हैं कि विरोधाभास क्‍या है? विरोधाभास एक ऐसी बात होती है जिसमें दो सामान्यतः विरोधी शब्दों को एक साथ मिला दिया जाता है। (जैसे कड़वाहट भरी मिठास, सुंदर असुंदर)। विकास की परिभाषा इतनी यथार्थ नहीं है जो इसे सड़के, कारखाने, बुनियादी ढ़ांचे इत्यादि के निर्माण की अपेक्षा प्राकृतिक संरक्षण के अधिक अनुकूल बनाती है। ‘विकास’ का ऑक्सफोर्ड शब्दकोश में अर्थ है ‘उन्‍नयन की अवस्था |

दूसरी तरफ ‘संपोषणीयता’ सहन करने //स्थयित्व की क्षमता है। शब्द ‘ससटेनेबिलिटी’ लेटिन शब्द ‘ससटोनियर’ से व्युत्पन्न है (टीनियर-थामे रखना, सस-ऊपर)। शब्दकोशों में ससटेन,/धारण करने के 0 से अधिक अर्थ हैं, जिनमें मुख्य हैं बनाए रखना’, “सहारा देना”, अथवा “सहन करना”। यही नहीं, जैसा कि माइकेल रेडक्लिफ्ट द्वारा कहा गया है संपोषणीयता पर चर्चा बीते वर्षों में, क्रमिक रूप से “मानव आवश्यकताओं’ से हटकर लगभग अगोचर रूप से ‘मानवाधिकारों’ पर चली गई है।

इसलिए संपोषणीयता वह प्रक्रिया है जो उस संसाधन आधार को क्षीण किए बगैर जिस पर वह निर्भर करती है, अनंत काल तक जारी रह सकती है। इसलिए, प्राकृतिक जगत्‌ के साथ हमारी परस्परक्रिया की ओर हमारे व्यवहारिक लक्ष्य निर्देशित होने चाहिए। संपोषणीयता के मार्गदर्शी सिद्धांत पारिस्थितिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आयामों तक विस्तारित हैं।

सतत विकास की संकल्पना को अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय और स्थानीय स्तरों पर अब भली प्रकार स्वीकार कर लिया गया है। यह 4992 में रियो सम्मेलन के बाद से लंबी बहस और परिचर्चा के बाद अब एक प्रबल वैकल्पिक मॉडल के रूप में उभर रहा है। सतत विकास का अर्थ है भिन्‍न जनों के लिए भिन्‍न चीजें। सतत विकास की संकल्पना को साकार करने में पारंपरिक रूप से तीन प्रमुख विषयों का प्रक्रियाओं से सरोकार है।

अर्थशास्त्र का विषय मुख्य रूप से वृद्धि, सक्षमता और संसाधनों के इष्टतम उपयोग से संबंधित है। दूसरी तरफ समाजविज्ञानी मुख्यरूप से मानवीय आवश्यकताओं और समता, सशक्तीकरण तथा सामाजिक मेलमिलाप जैसी अवधारणाओं पर केन्द्रित करता है। पारिस्थितिकी विद्‌ प्राकृतिक तंत्रों के संरक्षण से सर्वाधिक सरोकार रखते हैं और पर्यावरण की धारण क्षमता के भीतर रहने और प्रदूषण से प्रभावी रूप से निपटने की बात करते हैं।

आज विकास का यह कट्टरपंथी अभिगम जिसे ऊपर बताए गए विषयों द्वारा अपनाया गया है, को नकार दिया गया है। अब ये तर्क किया जाता है कि सतत विकास तब प्राप्त होगा जब इन तीनों समूहों के सरोकारों को समग्र तरीके से संबोधित किया जाएगा जैसा कि चित्र 4.3 में दिखाया गया है। ऐसा कहा जाता है कि सतत विकास एक आदर्श है जिसे आज के किसी भी समाज द्वारा इससे मिलते-जुलते किसी रूप में नहीं प्राप्त किया जा सका है। फिर भी, जैसा कि न्याय, समानता और स्वतंत्रता के साथ है, सतत विकास को एक आदर्श के रूप में प्रोत्साहित करना चाहिए। एक लक्ष्य जिसकी प्राप्ति के लिए सभी मानव समाजों को प्रयत्तशील रहना चाहिए।

उदाहरण के लिए, ऐसी नीतियां और कार्य जो शिशुमृत्युदर को कम कर दें, परिवार नियोजन की उपलब्धता को बढ़ा दे, वायु की गुणवत्ता बेहतर बना दें, अधिक प्रचुर मात्रा में शुद्ध जल प्रदान करें, प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्रों का संरक्षण और सुरक्षा करें, मृदा अपरदन को कम करें और पर्यावरण में विषाक्त रसायनों की निर्मुक्ति को कम करें, जो सभी समाज को सही दिशा में एक सतत्‌ भविष्य की ओर ले जाएं। इस वांछित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, समुदायों को कुछ रूपांतरण करने पड़ेंगे जो बेहद अनिवार्य है। भावी समाज बनाने के लिए निम्नलिखित परिवर्तनों पर आम सहमति बनी है |

सतत विकास को प्राप्त करने के लिए प्राथमिकता के क्षेत्र

  • जनसंख्या वृद्धि को मंदित करना : अन्य सभी प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को संबोधित करने के लिए अनिवार्य है।
  • गरीबी, असमानता और तीसरी दुनिया (अल्पविकसित और विकासशील देशों) के श्रणों को खत्म करना: स्वास्थ्य, साक्षरता और दीर्घजीविता को बढ़ाना, रोजगार के अवसर बढ़ाना इत्यादि। यह प्रजातियों की विलुप्ति / हानि को रोकने, भूमि निम्नीकरण की मात्रा को कम करने और जल प्रदूषण हटाने के लिए महत्वपूर्ण है।
  • कृषि को दीर्घोपयोगी बनाना : इसमें मृदा अपरदन कम करना और हानिकारक कृषि प्रथाओं के उपयोग को कम करना सम्मिलित है। यह जैवविविधता की हानि, भूमि निम्नीकरण और प्रदूषण कम करने के लिए महत्वपूर्ण है।
  • वनों तथा अन्य पर्यावासों का संरक्षण : इसमें बंजरभूमियों पर पुर्नवनरोपण और वनरोपण, अन्य सजीव संसाधनों का संरक्षण, ग्रीन हाउस गैसों तथा ओज़ोन परत क्षणिता का नियंत्रण सम्मिलित है। यह वायु प्रदूषण, भूमि निम्नीकरण, ऊर्जा के और खनिजों के क्षय को कम करने के लिए महत्वपूर्ण है।
  • जल और ऊर्जा के उपयोग को दीघोपयोगी बनाना: इसमें ऊर्जा सक्षमता को बेहतर बनाना, ऊर्जा संरक्षण और नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों को विकसित करना सम्मिलित है। यह वायु प्रदूषण, भूमि निम्नीकरण, ऊर्जा और खनिजों के क्षय को कम करने के लिए महत्वपूर्ण है।
  • जल का दीरघोपयोग संभव बनाना: इसमें जल उपयोग की सक्षमता और जल की गुणवत्ता को बेहतर बनाना सम्मिलित है। यह जल प्रदूषण और जल की हानि,/क्षय कम करने और भूमि निम्नीकरण रोकने के लिए महत्वपूर्ण है।
  • अपशिष्ट उत्पादन कम करना: इसमें उत्पादन प्रक्रियाओं को बेहतर बनाना अपशिष्ट उपचार और पुर्नचक्रण प्रक्रियाएं सम्मिलित हैं। यह वायु और जल प्रदूषण को कम करने और ऊर्जा, खनिज तथा जल की क्षीणता को कम करने के लिए महत्वपूर्ण है।

पर्यावरणीय अध्ययन की बहु विषयी प्रकृति (हमारा पर्यावरण)

अब तक आप ये समझ गए होंगे कि पर्यावरण हमें अनेक तरीकों से प्रभावित करता है, उदाहरण के लिए, जिस जल का हम उपयोग करते हैं जिस वायु में हम सांस लेते हैं, जिस जलवायवी स्थितियों में हम रहते हैं और हमारे आसपास का परिवेश जहां हम जीते हैं, सभी का हम पर प्रभाव पड़ता है। प्राकृतिक स्थितियों में सामान्यतः जीवित जीव अपने पर्यावरण के साथ एक संतुलन बनाए रखते हैं।

मनुष्यों ने अपने कौशल और विज्ञान की सहायता से अपनी आवश्यकतानुसार पर्यावरण (हमारा पर्यावरण) को अनुकूलित कर लिया है, लेकिन ऐसा करने में हमने जीवन के भंगुर जटिल बुने जाल को और जीवनदायी तंत्रों को विदारित कर दिया है। पर्यावरण के साथ समग्र रूप से इन सभी परस्पर-क्रियाएं पर्यावरण अध्ययन के विषय हैं। इसलिए, पर्यावरणीय अध्ययन, अध्ययन की वह शाखा है जिसमें पर्यावरण के नैसर्गिक अथवा प्रेरित परिवर्तनों और सजीवों पर उनके प्रभाव का अध्ययन किया जाता है।

पर्यावरणीय अध्ययन में ज्ञान का बड़ा क्षेत्र समाहित है जिसमें वह प्रत्येक सरोकार सम्मिलित है जो किसी जीव को प्रभावित करता है। मानवीय दृष्टिकोण से इसका अर्थ है कि यह एक अनुप्रयुक्‍त विज्ञान है जिसमें उन सभी संभावित उत्तरों को जानने का प्रयास किया गया है जो मानव को पृथ्वी पर उसकी सभी सीमित संसाधनों के साथ दीर्घोषयोगी बनाते हैं। इसमें न सिर्फ पर्यावरण के भौतिक और जैविक गुणों का अध्ययन सम्मिलित है

बल्कि पर्यावरण के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और यहां तक कि राजनैतिक और विधिक पहलू भी सम्मिलित हैं। विभिन्‍न मुद्दे जैसे स्वच्छ और सुरक्षित पेयजल, स्वच्छ और ताजी वायु, स्वच्छ जीवन स्थितियां, उत्पादक भूमि, अच्छी गुणवत्ता के खाद्य पदार्थ और सतत विकास को पर्यावरणीय अध्ययन में सम्मिलित किया गया है। पर्यावरण विज्ञान और पर्यावरणीय अध्ययन का महत्व विवादित नहीं हो सकता है।

सतत विकास की आवश्यकता भावी मानवता के लिए प्रमुख है। प्रदूषण, वनों और जैवविविधता की हानि, ठोस अपशिष्ट वियोजन, पर्यावरण का निम्नीकरण, भूमंडलीय तापन और जलवायु परिवर्तन, ओज़ोन परत की क्षीणता और जैवविविधता की हानि जैसे मुद्दों की जारी समस्याओं ने सभी जन को पर्यावरणीय मुद्दों के लिए जागरूक बना दिया है।

पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन जो 992 में रियो डी जेनेरियों में हुआ था और 2002 में जोहान्सबर्ग में सतत विकास पर हुए विश्व सम्मेलन ने दुनियाभर के आमजन का ध्यान अपने पर्यावरण की निम्नीकृत होती स्थिति की ओर आकर्षित किया है। इसे पुन: संयुक्त राष्ट्र द्वारा वर्ष 205 में सत्रह सतत विकास लक्ष्यों को अपनाकर पुर्नपरिभाषित किया गया है।

इस सम्मेलन में निर्णय लिया गया कि इससे 206 से 2030 के बीच सतत्‌ विकास लक्ष्य को हासिल करना है। अगस्त 206 में 493 देश निम्नलिखित 47 लक्ष्यों पर सहमत हो गऐ |

पूरे विश्व से गरीबी के सभी रूपों की समाप्ति। भूख की समाप्ति, खाद्य सुरक्षा और स्वस्थ जीवन को बढ़ावा। सभी आयु के लोगों में स्वास्थ्य सुरक्षा और स्वस्थ जीवन को बढ़ावा। समावेशी और न्यायसंगत गुणवत्ता युक्त शिक्षा सुनिश्चित करने के साथ ही सभी को सीखने का अवसर देना। लैंगिक समानता प्राप्त करने के साथ ही महिलाओं और लड़कियों को सशक्त

करना। सभी के लिए स्वच्छता और पानी के सतत्‌ प्रबंधन की उपलब्धता सुनिश्चित करना। सस्ती, विश्वसनीय, टिकाऊ और आधुनिक ऊर्जा तक पहुंच सुनिश्चित करना। सभी के लिए निरंतर समावेशी और सतत्‌ आर्थिक विकास, पूर्ण और उत्पादक रोजगार, और बेहतर कार्य को बढ़ावा देना।

लचीले बुनियादी ढांचे, समावेशी और सतत औद्योगिकरण को बढ़ावा। देशों के बीच और भीतर समानता को कम करना। सुरक्षित, लचीले और टिकाऊ शहर और मानव बस्तियों का निर्माण। स्थायी खपत और उत्पादन पैटर्न को सुनिश्चित करना। जलवायु परिवर्तन और उसके प्रभावों से निपटने के लिए तत्काल कार्यवाई करना।

स्थायी सतत्‌ विकास के लिए महासागरों, समुद्र और समुद्री संसाधनों का संरक्षण और उपयोग। सतत्‌ उपयोग को बढ़ावा देने वाले स्थलीय पारिस्थिकीय प्रणालियों, सुरक्षित जंगलों, भूमि क्षरण और जैव विविधता के बढ़ते नुकसान को रोकने का प्रयास करना।

सतत विकास के लिए शांतिपूर्ण और समावेशी समितियों को बढ़ावा देने के साथ ही सभी स्तरों पर इन्हें प्रभावी, जबावदेह? बनना ताकि सभी के लिए न्याय सुनिश्चित हो सकें। सतत विकास के लिए वैश्विक भागीदारी को पुर्नजीवित करने के अतिरिक्त कार्यान्वयन के साधनों को मजबूत बनाना। भारत जैवविविधता से समृद्ध है जो आमजन को विविध संसाधन प्रदान करते हैं। सिर्फ लगभग 47 लाख जीवित जीवों को वैश्विक रूप से वर्णित और उनका नामकरण किया गया है।

अभी अनेक अन्य का वर्णन और नामकरण करना बाकी है। उनको यथास्थल (उनके प्राकृतिक पर्यावास के बाहर) और बहिःस्थल (अपने प्राकृतिक पर्यावास की स्थितियों में) संरक्षित करने के प्रयास किए गए हैं। आप इकाई 8 में यथास्थल और बहि:स्थल संरक्षण के विषय में पढ़ेंगे। पर्यावासों का विनाश, ऊर्जा संसा६ नों का अत्यधिक उपयोग और पर्यावरणीय प्रदूषण बड़ी संख्या में जीवन-प्रकारों की हानि, विलुष्ति के लिए उत्तरदायी पाए गए हैं। यह डर है कि पृथ्वी पर जीवन का बड़ा अनुपात निकट भविष्य में नष्ट हो सकता है। इन मुद्दों को व्यापक रूप से इस पाठ्यक्रम की अगली तेरह इकाईयों में वैश्विक और राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर संबोधित किया गया है।

पर्यावरणीय अध्ययन का महत्व (हमारा पर्यावरण)

पर्यावरण अध्ययन हमें पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षण की जानकारी देता है। वर्तमान में, हमारी आक्रमक उपभोक्‍तावादी जीवनशैली और कार्बन सघन औद्योगिक विकास के कारण हमने बड़ी संख्या में पर्यावरणीय मुद्दों को स्थानीय, क्षेत्रीय और विश्व स्तर पर परिमाण, प्रबलता और जटिलता दोनों के संदर्भ में जन्म दिया है। हम पर्यावरण अ६्ययन में इन मुद्दों और इनके उपशमन के लिए सुझावात्मक उपायों के विषय में पढ़ेंगे।

आइए अब हम पर्यावरण के प्रमुख मुद्दों की आगामी अनुभागों में चर्चा करते हैं। पर्यावरणीय मुद्‌दे अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व के हैं: यह अब अच्छी तरीके से समझ लिया गया है कि पर्यावरणीय मुद्दे जैसे भूमंडलीय तापन और जलवायु परिवर्तन ओज़ोन परत की क्षीणता अम्लवर्षा, समुद्री प्रदूषण और जैवविविधता की हानि ता महज राष्ट्रीय मुद्दे नहीं बल्कि वैश्विक मुद्‌दे हैं अतः इनका

मुकाबला अन्तर्राष्ट्रीय प्रयासों और सहयोग से किया जाना चाहिए। आधुनिकीकरण और विकास के कारण समस्याओं का आविर्भाव: आधुनिक काल में विकास ने औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, आधुनिक परिवहन प्रणालियों, कृषि, आवास इत्यादि को जन्म दिया है। जब पश्चिम का विकास हुआ तो ऐसा संभवत: उसके क्रियाकलापों के पर्यावरणीय प्रभावों की अज्ञानता के कारण हुआ था। स्पष्ट रूप से ऐसा पथ न तो व्यवहारिक और न ही वांछनीय है।

विकासशील जगत्‌ अब पर्यावरणीय निम्नीकरण के बगैर विकास करने की चुनौती का सामना कर रहा है। जनसंख्या में विस्फोटक वृद्धिःविश्व जनगणना दर्शाती है कि पृथ्वी का प्रति सात में से एक व्यक्ति भारत में रहता है। स्पष्ट तौर पर विश्व जनसंख्या के 46 प्रतिशत और सिर्फ 2.4 प्रतिशत भूमि क्षेत्रफल के साथ भूमि समेत सभी प्राकृतिक संसाधनों पर अत्यधिक दबाव है।

यह प्राकृतिक संसाधनों में सभी के हित के लिए कुशल प्रबंधन की आवश्यकता को महत्व देता है। वैकल्पिक समाधान की आवश्यकता: यह विशेष रूप से विकासशील देशों के लिए अनिवार्य है कि वे विकास के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए वैकल्पिक पथ की तलाश करें| यह लक्ष्य विकसित जगत्‌ से इस मायने में भिन्‍न होना चाहिए कि इसमें प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण हो सके और व्यर्थ उपभोग से बचा जा सके |

विकास की विवेकपूर्ण योजना की आवश्यकता: संसाधनों की निकासी, प्रसकरण और उत्पादों का उपयोग सभी को विकास की किसी भी योजना में पारिस्थितिक चक्रों के साथ समक्रमिक होना चाहिए। हमारे कार्यालय पर्यावरण और विकास के सतत होने के लिए नियोजित होने चाहिए | “हमारा पर्यावरण”

यह भी पढ़ें

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top